Monday, 6 June 2016

दु:ख

तुझे दु:ख सारे
अंतरंगी दाटताना,
आषाढ-घनांसम माझ्या
उरी बरसताना,
मी अर्थपूर्ण होते..
मी अर्थपूर्ण होते..

दुबळ्याश्या झोळीमधले
क्षण सुखाचे वेचते-फेकते,
दु:खाच्या अनुभूतीने
मांगल्यात मी नहाते
वेदनेच्या काळजातला
स्वर ओला, ओथंबलेला
भिजताना ह्या स्वरांत
मी अर्थपूर्ण होते..

आता ना राहिली ओढ,
ना आस ही क्षणिक सुखाची
वेडावले मन, धाव घेई
दु:खाच्या प्रहरापाशी
हे दु:ख असे जगताना
मी अर्थपूर्ण होते
मी अर्थपूर्ण होते..

हम-तुम

जब से ये फासले मिटे से है,
दूरियों का एहसास कुछ गहरा सा है..

रहते इक छत के निचे,
पर अनजाने से जीते है
अपनी-अपनी दुनिया में
खोये-खोये होते है..

अब तो खाने के मेज़ पर भी
हम-तुम चुप होते है,
यतीम बने बर्तन सारें,
आपस में बतियाते है..

अब बातें तुमसे नहीं,
तुम्हारी चॅट विंडो से होती है,
कानों में तुम्हारी आवाज़ की जगह
कॉलर ट्यून सी बजती है..

कब छूटा यूँ हाथों से हाथ?
क्यों रास ना आया इक-दूसरे का ही साथ?

याद है,
इक कॉफ़ी के बहाने मिलते थे,
तो कितना कुछ कहते थे
सूनी सारी गलियों से,
आधी रात गुजरते थे
चंद लम्हों की मुलाकातों में
बीतें दिनों को जीते थे..

मुस्कुरा करा गले मिल,
राहें जुदा करते थे
बातें कितनी दिलों में अपनी
वो दोनों रखा करते थे,
मिलने के सभी वादों को,
कभी निभाया भी करते थे...

अब न जाने क्या हुआ
कॉफ़ी का वो प्याला,
पिछे कहीं छूट गया..

हाथों में हाथ लिए,
सडकों से आज भी गुजरते है
सूनी गलियाँ नहीं,
अब भीड़ ही पसंद करते है..

काश के इक रात
अतीत से लौट आये
अंधीयारी हमारी आँखों में
सपनों के उजाले दे जाए..

जी ले हम भी ज़रा,
फिर इक बार खुल के
इक-दूसरे की ज़िंदगी में भी
थोडासा घुल के!